यह संपादकीय हिंदुस्तान समाचार पत्र में दिनांक ३१ दिसंबर को प्रकाशित हुआ है. इस संपादकीय को पढ़ कर निम्नलिखित प्रश्नों का अपने शब्दों में उत्तर दें.
जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, भारत के लगभग 21 प्रतिशत भिखारी ऐसे हैं, जिन्होंने स्कूली पढ़ाई पूरी की हुई है। इसका अर्थ यह है कि 3.75 लाख भिखारियों में से लगभग 78,000 पढ़े-लिखे हैं। इनमें से 3,000 के लगभग भिखारी ऐसे हैं, जो ग्रेजुएट हैं या जिन्होंने कोई डिप्लोमा कर रखा है। कुछ भिखारी तो पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री भी लिए हुए हैं। हर समाज में कुछ ऐसे लोग जरूर पाए जाते हैं, जो काम नहीं करते और दान पर गुजारा करते हैं। लेकिन अगर इनकी संख्या लाखों में है, तो यह एक सामाजिक संकट है और इसके पीछे कई आर्थिक-सामाजिक कारण हैं। पढ़े-लिखे लोग भी अगर भीख मांगने को अपना पेशा बना रहे हैं या बनाने पर मजबूर हैं, तो यह हमारी शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की स्थितियों पर भी रोशनी डालता है।
कई सारे काम ऐसे हैं, जिनमें बहुत मेहनत है और कमाई बहुत नहीं है। कई पढ़े-लिखे भिखारी इसलिए भीख मांगने लगे, क्योंकि पहले जो काम या नौकरी वे करते थे, उससे ज्यादा आमदनी उन्हें भीख मांगने से हो जाती है। कुछ साल पहले एक खबर आई थी कि मुंबई के भिखारियों की कुल सालाना आमदनी 180 करोड़ रुपये है। इससे यह तो पता चलता ही है कि और कोई कारोबार चले या न चले, भीख का कारोबार चलता ही है। कई ऐसी खबरें भी हैं कि कुछ भिखारी बड़ी संपत्ति के मालिक हो गए हैं। एक तीर्थस्थान में एक भिखारी की हत्या के बाद यह राज खुला कि वहां कई भिखारी ब्याज पर पैसे देते हैं और हत्या कारोबारी स्पर्धा में हुई थी। ऐसे मामलों को छोड़ दें, तो ज्यादातर भिखारी अपनी जरूरत भर का पैसा ही कमा पाते हैं। यह बात कई जायज रोजगारों के बारे में दावे से नहीं कही जा सकती, खासतौर पर कम शिक्षा और निम्न स्तरीय कौशल वाले रोजगारों में अनिश्चितता, शोषण और मेहनत ज्यादा है, जबकि कमाई कम। ऐसा नहीं है कि भारत में काम नहीं है। कई क्षेत्रों में योग्य और कुशल लोगों की भारी कमी है। यह कमी भविष्य में भारत की अर्थव्यवस्था की तरक्की में बाधक हो सकती है। समस्या यह है कि आम तौर पर शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं है या उद्योगों की जरूरत और शिक्षा के बीच तालमेल नहीं है। आम लोग यह समझते हैं कि शिक्षा भविष्य को संवारने का सबसे बड़ा जरिया है, इसलिए हर आर्थिक तबके के माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। पढ़ाई की इस जरूरत को हमारी शिक्षा व्यवस्था पूरी नहीं कर पाती, इसलिए तरह-तरह की निजी संस्थाएं खुल गई हैं, जिनका उद्देश्य मुनाफा कमाना है। इनमें से कुछ की गुणवत्ता अच्छी है, कुछ की बहुत खराब। कई बड़ी कंपनियों का यह कहना है कि भारत के इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकले छात्र उनकी जरूरत के मुताबिक कुशल नहीं हैं। गैर तकनीकी विषयों की शिक्षा का हाल तो इससे भी बुरा है।
हर समाज की रचना में यह निहित होता है कि जो समर्थ हैं, वे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आगे बढ़ने में मदद करें या अगर वे अपना रोजगार कमाने में अक्षम हैं, तो उन्हें आर्थिक सहायता दें। ऐसी सहायता धार्मिक कृत्य के रूप में भी हो सकती है और सामाजिक दायित्व की तरह भी। लेकिन अक्सर समृद्ध लोग अपना सामाजिक दायित्व नहीं निभाते और भिखारियों को कुछ देकर अपने कर्तव्य को पूरा मान लेते हैं। इस मायने में समाज में भिखारी का होना इस बात को दर्शाता है कि समाज के प्रभु वर्ग ने अपना दायित्व नहीं निभाया है। पढ़े-लिखे भिखारी यह बताते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था इन्हें सम्मानजनक काम करने लायक नहीं बना पाई और हमारी अर्थव्यवस्था में श्रम का पूरा सम्मान नहीं है। ये भिखारी हमारे समाज को आईना दिखा रहे हैं।
प्रश्न :
१. जनगणना क्या है? भारत में यह कब और किसके द्वारा की जाती है ?
२. अधिक संख्या में भिखारियों के होने को आर्थिक और सामाजिक समस्या क्यों कहा जा रहा है?
३. समाज मैं भिखारियों की संख्या बढ़ने के पीछे क्या कारण हैं?
४. भिखारियों की बढ़ती संख्या के पीछे हमारी शिक्षा व्यवस्था की क्या भूमिका है?
५. भिक्षा पे भरोसे जीवन यापन करने वालों की संख्या में वृद्धि के लिए समाज का उच्च वर्ग कैसे जिम्मेवार है ?
६. आपके अनुसार भिखारियों को एक गरिमा-मय जीवन देने के लिए हमें क्या कदम उठाने चाहिए?